Saturday, August 1, 2015


ब्लॉग: क्यों आए याकूब के जनाजे में 8,000 लोग? By आकार पटेल, लेखक और स्तंभकार आकार पटेल, लेखक और स्तंभकार नई दिल्ली: मुंबई ब्लास्ट के दोषी याकूब मेमन को उसी दिन फांसी दी गई जिस दिन महान वैज्ञानिक और पूर्व राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम को सुपुर्द-ए-खाक किया गया. सरकार ने मीडिया को याकूब के जनाजे की रिपोर्टिंग से मना कर दिया था जबकि डॉ. कलाम को राष्ट्रीय सम्मान और तोपों की सलामी के साथ विदाई दी गई. मीडिया ने मेमन के मामले में सरकार के दिशा-निर्देश का पालन किया जिसके दो कारण है. पहली वजह यह रही कि मुंबई की मीडिया सरकार के मत से सहमत थी कि यदि याकूब के जनाजे में अत्यधिक संख्या में मुस्लिम भीड़ इकठ्ठा हो गई तो इस वजह से एक शहर में ध्रुवीकरण होगा और फिर दंगे होने का खतरा भी उत्पन्न हो सकता है. दूसरा कारण यह था एक दोषी आंतकी को लोगो की सहानुभूति मिली न कि आदर या सम्मान. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि इससे जुड़े जो तथ्य थे उससे समाज में नफरत फैलने का अंदेशा था. कुछ चैनलों ने इस पर अपनी स्थिति जाहिर करते हुए इसकी घोषणा की कि वह इस तरह के नफरत फैलाने वाली घटना को प्रसारित नहीं करेंगे. भारतीयों को याकूब के जनाजे में शामिल लोगों की संख्या के बारे में उन कुछ चुनिंदा तस्वीरों से ही पता चला, जो अगले दिन अखबारों में छपे. इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक तकरीबन 8000 हजार मुस्लिम पूरी मुंबई से याकूब के लिए नमाज अता करने आए थे. अब हमारे लिए सवाल यह है कि वे वहां क्यों थे? भारतीय जनता पार्टी नेता और त्रिपुरा के राज्यपाल तथागत रॉय ने सवाल खड़ा किया कि याकूब के जनाजे में मुस्लिम वहां क्यों जमा हुए थे? राय ने ट्वीट किया, ‘‘खुफिया एंजेसियों को मेमन के जनाजे में आने वाले सभी लोगों पर (रिश्तेदार और दोस्तों को छोड़कर) नजर रखना चाहिए. इनमें से कई लोगों के आगे चलकर आतंकवादी बनने की संभावना है.’’ इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक ये लोग बहुत दूर-दूर से आए थे और व्हाट्सएप मैसेज के जरिए उन्हें याकूब के दफन करने की जगह के बारे में जानकारी मिली. जनाजे में शामिल हुए आधिकतर लोग एक-दूसरे से बिल्कुल अंजान थे. रिपोर्ट के मुताबिक वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों ने सोशल मीडिया को ट्रैक किया ताकि इस बात का अंदाजा लगाया जा सके कि लोगों में कितना गुस्सा है. मुंबई पुलिस कमिश्नर ने माना कि भीड़ को भड़काने वाली किसी भी तरह की नारेबाजी नहीं की गई. यही नहीं अंतिम संस्कार वाली जगह पर भी इस बात की हिदायत दी गई कि कोई नारेबाजी नहीं करेगा. सवाल ये कि गहन पुलिस जांच और मीडिया के भरपूर विरोध के बावजूद अगर ये लोग वहां प्रदर्शन करने नहीं गए थे तो फिर इतना दिखावा क्यों किया गया? यह समझना बहुत ही आसान है अगर हम बिना किसी पक्षपात और बिना मीडिया कथा के इस घटना को देखते हैं, तो इसके बाद हुई घटनाएं बिल्कुल स्पष्ट हैं. 12 मार्च 1993 को मुंबई ब्लास्ट हुआ जिसमें मेमन को दोषी पाया गया. इसी साल जनवरी में 500 मुस्लिम और 200 हिंदू मुंबई में हुए दंगों में मारे गए. ठीक इससे एक महीने पहले भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में बाबरी मस्जिद गिराई गई. इस तरह से यह ब्लास्ट कई और हुई घटनाओं और व्यापक स्तर पर हुई हिंसा से जुड़ा हुआ है. इस में जो मारे गए उसमें हमें उन्हें भी जोड़ना चाहिए जिन्होनें अपना व्यापार खो दिया, जो इसमें जख्मी हुए, जिनका बलात्कार हुआ और जो विस्थापित हुए. ये आंकड़े दस हजार से बहुत ज्यादा है. ये मुंबई में हुए ब्लास्ट की पृष्ठभूमि है. इसतरह याकूब मेमन की फांसी समाज को बांटने वाली है और साथ ही जहर घोलने वाली भी है. टीवी चैनल्स ने इस बात का कड़ा विरोध किया कि याकूब मेमन को फांसी नहीं होनी चाहिए. इस बीच टाइम्स ऑफ इंडिया के एक रिपोर्ट में नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी के एक अध्ययन में इसका जिक्र किया गया है कि फांसी पर लटकाए गए 94 फीसदी लोग दलित और मुस्लिम हैं. इस वजह से मुस्लिमों में यह अनुभूति और ज्यादा प्रबल हुई है कि उनके धर्म की वजह से उन्हें यह सजा भुगतनी पड़ रही है. अगर याकूब दोषी भी था, और मेरा मानना है कि वह दोषी था, लेकिन सरकार के द्वारा उसे मारने की जल्दबाजी उसके धर्म की वजह से ही थी. इस पूरे मामले में यह बात भी साफ दिखाई पड़ती है कि बीजेपी के माया कोडनानी और बाबू बजरंगी जो कि याकूब मेमन के जैसे ही अपराधों में दोषी है लेकिन वे जमानत पर जेल तक से बाहर हैं. भारत में मुस्लिम होना बड़ी बात है. इंटरनेट पर किसी भी आर्टिकल जिसमें ना केवल आतंकवाद बल्कि मुस्लिमों को विश्वासघाती बताया गया है उसपर आये हुए कमेंट्स को पढ़ने से आप कई बातों को जानेंगे और समझेंगे. हमारे अंग्रेजीदां मिडिल क्लास में कट्टरता और पूर्वाग्रह इस तरह हावी है कि वह भयावह हो चुके हैं. मैं वाकई में उन परेशान मुस्लिमों के बारे में जानना चाहता हूं जो घर और नौकरी की तलाश में हैं. भारत में मुस्लिम होने की यही हकीकत है. ऐसे कई मौके आये हैं, याकूब का फांसी पर लटकना भी ऐसा ही क्षण था. जो लोग याकूब के जनाजे में शामिल हुए वे प्रदर्शन करने के लिए नहीं गए थे. ये लोग अपनी सहानुभूति जताने आए थे क्योंकि वे भी पीड़तों में से ही एक हैं.

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